Paryavaran ki bhartiya avdharnaye (पर्यावरण की भारतीय अवधारणा)
Material type:
- 9789392721243
- 363.7 HARI V
Item type | Current library | Call number | Copy number | Status | Date due | Barcode | |
---|---|---|---|---|---|---|---|
![]() |
Jawaharlal Nehru Library | 363.7 HARI PA (Browse shelf(Opens below)) | NPH/24-25/IN-00703, 05/03/2025 | Available | 394961 | ||
![]() |
Jawaharlal Nehru Library | 363.7 HARI PA (Browse shelf(Opens below)) | NPH/24-25/IN-00703, 05/03/2025 | Available | 394962 |
भूमिका
तकनीकी शिक्षा में पर्यावरण के पाठ्यक्रम में भारतीय ज्ञान परम्परा के समावेश से संबंधित यह पुस्तक न केवल भारतीय ज्ञान परम्परा के उदात्त स्वरूप और उसके सर्वकालिक महत्त्व से अवगत कराती है अपितु बर्तमान आवश्यकताओं के अनुरुप पर्यावरण से संबंधित अनेक समस्याओं के तार्किक समाधान पर प्रकाश डालती है। प्रश्न यह है कि वर्तमान शिक्षा में भारतीय ज्ञान परम्परा की आवश्यकता क्यों है? क्योंकि भारतीय आधारभूत ज्ञान पूर्णरूप से वैज्ञानिक है।
पर्यावरणीय संकट एक विश्वव्यापी समस्या है। पर्यावरण के संकट पर वैश्विक स्तर पर 1972 से चर्चा प्रारंभ हुई (संयुक्त राष्ट्र संघ ने वर्ष 1972 में अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर पर्यावरण दिवस मनाने पर विचार किया था और 1974 से प्रत्यक्ष मनाना प्रारंभ किया)। वास्तविक समस्या कुछ दशक पूर्व प्रारंभ हुई होगी। परन्तु भारत में सैकडों, हजारो वर्ष पूर्व लिखे गए ग्रंथों में पर्यावरण संरक्षण से संबंधित बातें / मंत्र क्यों लिखे गए? मेरी दृष्टि से इसका तात्पर्य है कि पश्चिम में या तो विश्व की अन्य विचारधाराओं में समस्या खड़ी होने के बाद समाधान का प्रयास किया जाता है परन्तु भारतीय ज्ञान परम्परा में यह समस्या खड़ी ही न हो इस प्रकार का चिन्तन किया जाता रहा है। इस प्रकार भारतीय प्राचीन ग्रंथों में व्याप्त ज्ञान से विश्व की अधिकतर समस्याओं के समाधान प्राप्त हो सकते हैं और इस बात को वैश्विक स्तर पर भी स्वीकार किया जा रहा है।
वैश्विक स्तर पर सर्वसम्मति से अन्तर्राष्ट्रीय योग दिवस का स्वीकार किया जाना इस बात का प्रमाण है। मनुष्य की शारीरिक एवं मानसिक अस्वस्थता का समाधान योग में है। भारतीय मूल का अधिकतर चिन्तन पूर्ण रूप से वैज्ञानिक है। इस कई इस्लामिक देशों ने भी योग को स्वीकार किया। इसी प्रकार की भारत की आयुर्वेदिक चिकित्सा पद्धति है। जिसका आधुनिक संदर्भ में विकास एवं विस्तार अपेक्षित मात्रा में हम नहीं कर पाए हैं। जब यह कार्य हम भारत में कर लेंगे तब पूरे विश्व में योग से भी अधिक स्वीकार्यता आर्युवेद की होगी। आज समग्र विश्व जिस प्रकार स्वास्थ्य की समस्याओं से जूझ रहा है उसका समाधान आयुर्वेद ही दे सकता है।
दूसरी बात प्राचीन के बदले हम भारतीय ज्ञान परम्परा शब्द का प्रयोग क्यों करना चाहते हैं। भारतीय ज्ञान परम्परा में प्राचीन ज्ञान का समावेश हो जाता है। भारत का प्राचीन ज्ञान तो श्रेष्ठ है ही परन्तु यह प्रक्रिया परम्परा समाप्त नहीं हुई है। हों यह अवश्य कम हुई है परन्तु पिछले दो सौ वर्ष में स्वामी विवेकानन्द, महर्षि अरविन्द, जगदीशचन्द्र बसु (बोस), प्रफुलचन्द्र राय (पी.सी. रॉय), श्रीनिवास रामानुजन आदि अनेक नाम गिनाए जा सकते हैं। उन महापुरुषों ने जो ज्ञान दिया वह भी भारतीय ज्ञान परम्परा का महत्त्वपूर्ण भाग है। वेद, उपनिषदों से लेकर सभी भारतीय मनीषियों की चिन्तनधारा ही भारतीय ज्ञान परम्परा है।
बीच के हजार, बारह सौ वर्ष में भारत पर सतत आक्रमण होते रहे। इस कारण से भारतीय ज्ञान परम्परा में काफी गिरावट आ गई थी। फिर भी सम्पूर्ण प्रक्रिया बंद नहीं हुई। परन्तु विगत 71 वर्ष से हम स्वतंत्र है। इस हेतु भारतीय ज्ञान परम्परा को तेज गति प्रदान करने का दायित्व देश के वर्तमान शिक्षाविद्, वैज्ञानिक, सामाजिक एवं राजनीतिक नेतृत्व का बनता है। भारत में बौद्धिक प्रतिभा की कोई कमी नहीं है। आज भी विश्व भारत के छात्रों का लोहा स्वीकार करता है। हमारे छात्र बौद्धिक प्रतिभा में विश्व में श्रेष्ठतम स्तर पर माने जाते हैं। इस प्रतिभा के विकास हेतु कुछ आधारभूत बातों का विचार करने की आवश्यकता हैं।
प्रथम बात है भारतीय शिक्षा व्यवस्था में आधारभूत परिवर्तन की आवश्यकता है। हमारी वर्तमान शिक्षा में कुछ मात्रा में रटा रटाया सैद्धांतिक ज्ञान मात्र दिया जाता है; वर्षों तक वही पाठ्यक्रम अधिकतर सस्थानों में चलाए जा रहे हैं। व्यवहारिकता का बहुत बड़ा अभाव दिखाई देता है। जब तक करके सीखने की पद्धति नहीं होगी तब तक वह छात्र स्नातक, परास्नातक होकर कुछ विशेष नहीं कर पाएँगे।
प्रस्तावना
मातृभाषा के प्रति सम्मान एवं अनुराग समाज की सांस्कृतिक पहचान का प्रतीक है। मातृभाषा जहां एक ओर अभिव्यक्ति एवं गूढतम विषयों/विचारों को समझने-समझाने का सहज माध्यम है, वहीं दूसरी ओर इसमें सृजनशीलता की अपार सम्भावनाएं निहित होती हैं। शिक्षाविदों की भी यही मान्यता रही है कि अध्ययन, अध्यापन और ज्ञानार्जन का सबसे सशक्त माध्यम मातृभाषा ही है।
हिन्दी देश की राजभाषा है। देश में सर्वाधिक लोग हिन्दीभाषी हैं। विगत चार-पांच दशकों में इस भाषा में विश्व स्तर का साहित्य रचा गया है। विशेष योजना बनाकर विश्वविद्यालय पाठ्यक्रम से संबंधित विभिन्न विषयों की पुस्तकों के प्रकाशन पर भी कार्य हुआ है। सौभाग्य से आज हिन्दी को विश्व की सर्वाधिक प्रचलित और स्वीकार्य भाषाओ में प्रमुख स्थान दिया जाता है। यह स्थान हिन्दी ने युग-युगान्तर में विकास के विविध चरणों में क्रमशः अर्जित किया है। विगत वर्षों के प्रयासों से हिन्दी न सिर्फ ज्ञान-विज्ञान के सीमान्तों का स्पर्श कर सकी है वरन् विश्व के विकास की गति से होड़ करती हुई अद्यतन विषयों, अनुसंधानों और तकनीकी विकास को संप्रेषित कर सकी है।
आज विज्ञान और प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में विस्मयकारी गति से विकास हो रहा है, उच्च शिक्षा के क्षेत्र में नवीन विषय योजित हो रहे हैं और अंतरानुशासन वाले विषयों का समावेश हो रहा है। ऐसी स्थिति में और भी आवश्यक हो जाता है कि इन परिवर्तनों के दृष्टिगत ग्रंथों के लेखन और प्रकाशन के कार्य में और अधिक तीव्र गति से वृद्धि की जाए।
स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद से अनेक वर्षों तक उच्च शिक्षा व तकनीकी विषयों पर हिन्दी सहित अन्य भारतीय भाषाओं में पुस्तकों की कमी के चलते अंग्रेजी न जानने वाले या कम अंग्रेजी जानने वाले विद्यार्थियों के ज्ञान व योग्यता को कमतर आंका जाता रहा है। ऐसा भविष्य में न हो, इसलिए प्रधानमंत्री नरेन्द मोदी जी के नेतृत्व में तैयार की गयी नई शिक्षा नीति में हिन्दी व विभिन्न भारतीय भाषाओं में पाठ्य सामग्री उपलब्ध कराने पर विशेष जोर दिया जा रहा है। हरियाणा साहित्य एवं संस्कृति अकादमी मुख्यमंत्री मनोहर लाल जी की अध्यक्षता में उच्च शिक्षा के क्षेत्र में अध्ययन और पाठ्य सामग्री को हिन्दी भाषा में उपलब्ध कराने का ठोस कार्य कर रही है। उच्च व तकनीकी शिक्षा की पाठ्य सामग्री हिन्दी में उपलब्ध कराने के लक्ष्य को सभी साथ मिलकर प्राप्त करने के पथ पर अग्रसर हैं।
इसी उद्देश्य की पूर्ति हेतु अभातशिप और हरियाणा साहित्य एवं संस्कृति अकादमी ने उच्च शिक्षा से जुड़े विभिन्न विषयों पर हिन्दी में पुस्तकें उपलब्ध कराने का बीड़ा उठाया है। इस क्रम में 'पर्यावरण की भारतीय अवधारणा' संबंधी विषय पर डॉ. हरिशंकर शर्मा, डॉ. सदाचारी सिंह तोमर, डॉ. देवेन्द्र मोहन, सुश्री रचना शर्मा का हिन्दी भाषी विद्यार्थियों व शोधकर्ताओं के लिए यह प्रयास अत्यंत सराहनीय है। 'पर्यावरण की भारतीय अवधारणा' शीर्षक की यह पुस्तक विद्यार्थियों के लिए लाभदायक होगी, ऐसा मेरा पूर्ण विश्वास है।
There are no comments on this title.